बौद्धिक मंच ‘जागृत’ द्वारा 18 मई को Muzaffarpur में जाति जनगणना पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाएगा

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2 May : बौद्धिक मंच ‘जागृत’ द्वारा 18 मई को Muzaffarpur में जाति जनगणना पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाएगा.

बौद्धिक मंच ‘जागृत’ द्वारा 18 मई को Muzaffarpur में राष्ट्रीय संगोष्ठी

*दिल्ली विश्वविद्यालय और नागालैंड विश्वविद्यालय के राष्ट्रीय चिंतक और विशेषज्ञ इस सेमिनार में लेंगे हिस्सा
बौद्धिक- वैचारिक हस्तक्षेप का स्वतंत्र मंच “जागृत” के तत्वावधान में 18 मई 2025 को Muzaffarpur क्लब में एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन होने जा रहा है। राष्ट्रीय सेमिनार का विषय है-“बिहार में जातीय गणना और आरक्षण की सीमा: समाज एवं सरकार की भूमिका”
इस सेमिनार में राष्ट्रीय स्तर के चिंतक एवं विचारक अपनी बातों को रखेंगे।
मुख्य वक्ता के रूप में
1.डॉ अनिल चमरिया, संपादक जन मीडिया एवं मास मीडिया, नई दिल्ली।

  1. प्रो जितेंद्र मीणा, किरोड़ीमल कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
  2. प्रो दीपक भास्कर नागालैंड विश्वविद्यालय दीमापुर, सेमिनार में शिरकत करेंगे।
  3. सेमिनार में मुख्य अतिथि के रूप में बिहार में जातीय सर्वे के सूत्रधार तथा आरक्षण की सीमा को 49% से बढ़कर 65% प्रतिशत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करने वाले नेता प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा श्री तेजस्वी प्रसाद यादव जातीय जनगणना एवं आरक्षण के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डालेंगे
    *इस सेमिनार में लगभग पांच हजार की संख्या में विश्वविद्यालय एवं कॉलेज के प्राध्यापक, प्राचार्य, वकील, चिकित्सक,प्राइमरी, माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षक, शोधार्थी, सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतक सम्मिलित होंगे। उक्त जानकारी जागृत मंच के संयोजक प्रो संजय कुमार सुमन ने प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से दिया।
बौद्धिक मंच 'जागृत' द्वारा 18 मई को Muzaffarpur में राष्ट्रीय संगोष्ठी

सेमिनार के आयोजन का उद्देश्य:
प्रेस को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय सेमिनार के अध्यक्ष प्रो विजय कुमार रजक ने कहा कि भारत में जाति जनगणना आजादी के बाद रूकी रही, किंतु सामाजिक न्याय, नीतिगत सुधार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए इसकी जरूरत महसूस की जा रही है। पारदर्शिता के साथ किया गया जातीय गणना समावेशी विकास की दिशा में सहायक हो सकता है।
भारत जैसे देश में जहां जाति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना का अभिन्न हिस्सा रही है, यह आंकड़े विभिन्न समुदायों की जनसांख्यिकी, सामाजिक आर्थिक स्थिति और प्रतिनिधित्व को समझने में मदद करते हैं। इनका उपयोग आरक्षण नीतियों, सामाजिक न्याय कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं को तैयार करने में किया जा सकता है।

“जागृत” के सह संयोजक प्रो गोपी किशन ने कहा कि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जाए तो ब्रिटिश काल (1881-1931) में जाति गणना कराई गई। उस समय उसका उद्देश्य भारत की जटिल सामाजिक संरचना को समझना और शासन को सुगम बनाना था। 1947 में आजादी के बाद 1951 में पहली बार एससी- एसटी की गणना कराई गई मगर अन्य जातियों की गणना नहीं हो सकी।

हाल के वर्षों में बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में जातीय सर्वेक्षण कराए गए। अप्रत्याशित रूप से ओबीसी कैटिगरी के जातियों की संख्या में बढ़ोतरी दिखाई पड़ी तो आरक्षण की सीमा 50% से अधिक की मांग भी उठने लगी। बिहार सरकार ने आरक्षण की सीमा को 65 वर्ष तक किया, मगर कोर्ट ने इस पर रोक लगा दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट में है, मगर बहस जारी है। आज देश के सभी राज्यों में जातीय जनगणना की आवश्यकता आन पड़ी है। सामाजिक चिंतकों का मानना है कि जाति गणना सामाजिक समावेशन और नीतिगत सुधारों को बढ़ावा देगा।

आज जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता को लेकर भारत में गहरी बहस छिड़ गई है। इसके लिए समर्पित राजनीति इच्छाशक्ति, पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए ताकि आगे होने वाले जाति गणना सामाजिक न्याय और विकास में सहायक हो सके। यह भारत की नीति निर्माण प्रक्रिया को भी मजबूत करेगा। आज जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता को समझते हुए भारत सरकार ने भी देश भर में जातीय जनगणना करने का निर्णय लिया है। 18 मई को होने वाला राष्ट्रीय सेमिनार जाति जनगणना के क्षेत्र में नई दिशा देने का काम करेगा।

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