श्रीमद् भागवत महापुराण ज्ञान यज्ञ : मनुष्य वही है जो दुखियों का दुख समझता है, और परोपकार के लिए सदैव अग्रसर रहता है।

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हमें सदैव अच्छे पुरुषों की संगत करना चाहिए, अच्छे लोगों का ही चिंतन करना चाहिए और सदैव अपने मन में सकारात्मक विचारों को ही विचार करना चाहिए, जिससे हमारा मन पवित्र रहता है, हमारे कार्य करने की क्षमता बढ़ती है, एवं हमें भगवत कार्य करने का शुभ अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि पात्रता के अनुसार ही भगवान कृपा करते हैं।

Muzaffarpur 15 November : कथा वाचक पंडित अमित कृष्ण शास्त्री ने श्रीमद् भागवत महापुराण ज्ञान यज्ञ के तृतीय दिवस में बताया कि परीक्षित जी ने कलयुग को 4 स्थानों में निवास दिया। जिसमें से प्रथम द्युत क्रीडा अर्थात जुआ खेलना, मांस भक्षण अर्थात मांस खाना, शराब का सेवन एवं स्व पत्नी परित्याग कर वैश्या गामी जहां हों, उस स्थान में आप रहिए। इसीलिए हम सभी को इन 4 चीजों से सदैव बचना चाहिए। जो व्यक्ति शराब सेवन करता है या मांस भक्षण करता है या वेश्या गामी होता है उस व्यक्ति में कलयुग आकर निवास करता है, और इसीलिए उसके द्वारा सदैव अधर्म के कार्य होते हैं, वह धर्म का घोर विरोधी बन जाता है, सिर्फ अधर्म के कार्य में ही उसका मन लगता है, क्योंकि हम जैसा आचरण करते हैं जैसे हमारे मन के अंदर विचार होते हैं, यह हमारा आहार व्यवहार जिस प्रकार का होता है, हम उसी तरह के होने लग जाते हैं।

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शास्त्रों में उल्लिखित है, एक भंगी नाम का कीड़ा होता है, उसकी संतान जो होती है उसकी संतान गर्भाधान से नहीं होती, वह किसी भी कीड़े को पकड़ कर लाता है और अपने जाल में फंसा कर उसके पास में भिन्न-भिन्न भिन्न-भिन्न करता रहता है। और उसकी उस आवाज को सुन सुनकर वह कीड़ा भी भंगी बन जाता है। अर्थात हमें इससे यह शिक्षा प्राप्त होती है कि हमें सदैव अच्छे पुरुषों की संगत करना चाहिए, अच्छे लोगों का ही चिंतन करना चाहिए और सदैव अपने मन में सकारात्मक विचारों को ही विचार करना चाहिए, जिससे हमारा मन पवित्र रहता है, हमारे कार्य करने की क्षमता बढ़ती है, एवं हमें भगवत कार्य करने का शुभ अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि पात्रता के अनुसार ही भगवान कृपा करते हैं। आपका पात्र यदि ठीक नहीं है, यदि आपके पास जो बर्तन हैं वह मैला है, वह दूषित है, तो उस मैली कुचली बर्तन में आप भगवान का अमृत कहां से रख पाएंगे। इसीलिए ही हमको सदैव श्रेष्ठ आचरण करने वाले व्यक्तियों का संघ करना चाहिए। क्योंकि, परीक्षित जी ने 4 स्थानों में कलयुग का निवास दिया। पंचम स्थान स्वर्ण भी कहा और 2 मिनट की संगति मिली कलयुग की उसके प्रभाव से इतनी दयालु इतनी धर्मात्मा और इतनी ब्राह्मणों और संतों का सम्मान करने वाले उन राजा के हृदय में बुराई ने आकर के स्थान ले लिया जिसके प्रभाव से उन्होंने एक तपस्या में लीन भगवत आराधना में लीन एक महात्मा का अपमान कर दिया, उनके गर्दन में मरा हुआ सर्प लटका करके चले आए, और उन ब्राह्मण के पुत्र ने उन्हें श्राप दे दिया। परीक्षित जी को 7 दिन पर्यंत तक्षक नाग काटेगा ऐसा श्राप मिल गया। अतः हमे यही शिक्षा लेना चाहिए की बुरे बुरे लोगों की संगति यदि कुछ क्षण के लिए भी आप करेंगे तो आप का किया हुआ अच्छा कार्य भी थक जाएगा और वह बुराई आपके हृदय में आकर निवास करेगी।


आगे महाराज जी ने बताया परीक्षित को ही नहीं अपितु समस्त विश्व के मानवों को 7 दिन पर्यंत मरने का श्राप मिला हुआ है, क्योंकि इन्हीं 7 दिनों में हम सबको मरना है, सोमवार मंगलवार बुधवार बृहस्पति शुक्र शनि रवि इन सातों दिनों में ही आप हम सबको किसी ना किसी दिन प्रस्थान करना है, अतः इन सातों दिनों की उपयोगिता समझते हुए श्रीमद् भागवत महापुराण की एक-एक दिन की कथा सुनकर के हमें कैसे अपने सातों दिन चरितार्थ करने हैं, कृतार्थ करने हैं, श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा से हमें कैसे अपने जीवन को भगवान के योग्य बनाना है, यह बात हमें श्रीमद् भागवत महापुराण के श्रवण से पता चलेगी, क्योंकि हमें क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए, क्या खाना चाहिए क्या नहीं खाना चाहिए, कैसे रहना चाहिए कैसे नहीं रहना चाहिए, इस प्रकार की सोच ही हमे मानव बनाती है। पशु भी भोजन करते हैं पशु भी बेटा बेटी पैदा करते हैं, पशु भी अपने जीवन का निर्वाहन करते है, लेकिन उनके अंदर यह सोच नहीं होती कि हमें क्या खाना है क्या नहीं खाना। और उन्हें यह सुविधा भी नहीं है। हम मनुष्य इसीलिए कहलाते हैं क्योंकि हमारे अंदर यह विवेक है, और सुविधा भी कि हमें क्या खाना चाहिए क्या नहीं खाना चाहिए कैसे हमें रहना चाहिए और इस मनुष्य शरीर को पाकर हमें सदैव अपना भी और पराए का दुख समझना चाहिए। जो इंसान ना खाने का विचार करता है, ना बोलने में विचार करता है, सदैव एक दूसरे की निंदा करता रहता है, किसी को भी नीचा दिखाने में या उसका अपमान करने में उसको संकोच नहीं होता, तो वह मनुष्य कहलाने के अधिकार से वंचित है।

हमारे सनातन धर्म में परोपकार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया। अगर यूं कहें परोपकार ही सनातन धर्म का मूल है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है “परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परी पीड़ा सम नहिं आदिमाई।।” अस्तु मनुष्य वही है जो दुखियों का दुख समझता है, और परोपकार के लिए सदैव अग्रसर रहता है। चौरासी लाख योनियों को भोग कर भगवान की कृपा से ही मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। इस मनुष्य शरीर में कई जन्मों की मन को आदतें होती है। क्योंकि शास्त्र कहता है कि मनुष्य जीवन के पूर्व हम कुत्ता, गधा, कौवा, गीत, झील इत्यादि बन चुके मनुष्य शरीर में भी वही मन रहता है, जो अन्य योनियों में होता है। इसीलिए तो कई मनुष्य कुत्तों की भांति सदैव लड़ाई करते हैं। कई मनुष्य जानवरों की तरह कुछ भी खा लेते हैं। आज तो सत्संग करके हम अपने जीवन को मनुष्य योनि में देवयानी की प्राप्ति कैसे करें। यह श्रीमद् भागवत महापुराण की दिव्य कथा में हम सबको प्रेरणा मिलती है।


महाराज श्री ने ध्रुव जी का चरित्र सुनाते हुए भक्ति की महिमा का वर्णन किया। मनुष्य को स्वाभिमानी होना बहुत जरूरी है। श्री ध्रुव जी महाराज 5 वर्ष की अवस्था में ही अपनी विमाता से अपमानित होकर रोते हुए अपनी मां के पास आए और उन्होंने बताया कि मेरी सौतेली माता ने मेरा नहीं अपितु आप का अपमान किया है और इसीलिए मैं दुखी हूं उसने आपको गालियां दी लेकिन माता सुनीति ने अपने 5 वर्ष के पुत्र ध्रुव को बहुत ही शास्त्र उचित बात समझाई। माता सुनीति ध्रुव को कहती हैं, कि बेटा कभी भी किसी की बुराई का चिंतन नहीं करना चाहिए। उसने बुरा किया उसने बुरा कहा इस चिंतन को करने से अच्छा है कि हमें क्या अच्छा करना है, इस पर विचार करना चाहिए। यदि संसार में किसी चीज का अभाव है, तो उसे पूरा करने के लिए भी भगवान की ही शरण लेना पड़ता है, क्योंकि एक बार जब भगवान प्राप्त हो जाते हैं, तो हमें संसार में कभी किसी वस्तु की जरूरत पङती। अतः दूसरे क्या कर रहे हैं, और लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं, हमें इस तरह के चिंतन से बचना चाहिए। और सदैव अपनी जीवन को परिमार्जित करने के लिए सतत चिंतन करना चाहिए। माता के दिव्य उपदेश को सुनकर श्री ध्रुव जी ने 5 वर्ष की अवस्था में भगवान को प्राप्त करने के लिए प्रस्थान किया । शास्त्रों में वर्णन है कि जब कोई सच्ची लगन, सच्ची निष्ठा से कोई कार्य करना चाहता है, तब उस कार्य में भगवान उसकी सहायता जरूर करते हैं। और इसीलिए ध्रुव जी महाराज जब भगवान की प्राप्ति के लिए गए तो उन्हें श्री देव ऋषि नारद जी का दर्शन हुआ। देव ऋषि नारद जी ने ध्रुव जी की तो पूर्व में परीक्षा ली और जब यह देखा इनका निश्चय बड़ा अटल है। यह अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटेंगे। तब गुरुदेव भगवान ने उन्हें भगवत प्राप्ति का साधन बताया, उनके कान पर द्वादश अक्षर मंत्र देकर उन्हें भगवान की आराधना करने का सुंदर उपाय बताए। क्योंकि संसार में गुरुदेव भगवान के माध्यम से ही शरणागति होती है, और शरणागति लेते ही मनुष्य को भगवान की प्राप्ति हो जाती है। गुरुदेव श्री नारद जी का आशीर्वाद लेकर श्री ध्रुव जी महाराज यमुना के तट मथुरा में जाकर के गुरुदेव के बताए हुए निर्देशन के द्वारा उन्होंने अपनी साधना को प्रारंभ किया, और सिर्फ 6 महीने में ही भगवान को प्राप्त कर लिया। इससे हमें यह शिक्षा लेना चाहिए कि आप के कार्य करने की क्षमता प्रबल हो एवं आपका मार्गदर्शक भी बहुत उच्च कोटि का हो, और उस कार्य करने में आपका उत्साह अभी प्रबल हो तो दुनिया का असंभव से असंभव कार्य संभव हो जाता है।


महाराज श्री ने आगे बताया कि इन्हीं के वंश में एक अंग राजा हुए और इनके बेटे का नाम बेन पड़ा। यह राजा बड़े ही क्रूर शासक थे । पहला इन्होंने अपने राज्य में समस्त धर्म के कार्यों को प्रतिबंधित कर दिया। संतो ने आकर उन्हें समझाया परंतु उन्होंने उनकी बात नहीं मानी। परिणाम यह हुआ संतो के अपमान करने के कारण इनका शरीर छूट गया और पूरी धरती में हाहाकार मच गया। अनाचार और अत्याचार के कारण धरती बंजर हो गई। धरती ने बीज ही देना बंद कर दिया। सर्वत्र अकाल हो गया। तब साक्षात भगवान ने ही पृथु रूप में अवतार लेकर और धरती माता से प्रार्थना की, तब धरती माता ने गौ माता का रूप बनाकर श्री प्रभु जी महाराज को यह बताया कि गौ माता और धरती माता का एक ही स्वरूप है। जब जब गौ माता पर अनाचार बढ़ता है, धर्म पर कुठाराघात होता है, हम धार्मिक आयोजनों से और गौ सेवा से वंचित हो जाते हैं, तब यह धरती कुपोषित हो जाती है। गौ माता के गोबर गोमूत्र से धरती सदैव सुपोषित रहती है।

आज के समय में भी गौ माता का सतत निरादर हो रहा है। किसानों के द्वारा अत्यधिक रसायनों का प्रयोग करने के कारण जल्द ही हमारे इस जीवन में विकट समस्याएं आने वाली और आ ही गई हैं। क्योंकि अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से अन्य दूषित हो चुका है। इसी कारण बहुत सारी बीमारियां जो कभी सुनने में नहीं आती थी, अब वह प्रायः कम उम्र के बच्चों को भी हो रही हैं। गौ माता का दूध गौ माता का गोबर एवं गौ माता के मूत्र में औषधियों से भी अनंत गुणित शक्तियां हैं। गौ माता का दूध अपने आप में अमृत है। दही भी मट्ठा छाछ इनका तो क्या कहना। इसीलिए श्री राजा पृथु जी ने पुनः अपने राज्य में गौ सेवा ब्राह्मणों की सेवा और ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ इत्यादि का कार्य प्रारंभ कराया। जिसके प्रभाव से पुनः धरती माता सुपल्वित हो गई, एवं फिर से हरी भरी हो गई। हम सबको धरती में पेड़ लगाकर गौ माता की सेवा कर अपने बूढ़े बुजुर्गों की सेवा करके अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहिए।।

श्रीमद्भागवत कथा ज्ञानयज्ञ में मुख्य यजमान सत्येंद्र कुमार पिंकू एवं इनकी पत्नी प्रिया दीप व संजय कुमार एवं इनकी पत्नी अनामिका, आशिर्वाद सत्यम्, संस्कार शिवम्, राजनन्दनी, प्रियाशी, श्रेयांशी, वीणा देवी, संजीव कुमार रिंकू, निवर्तमान वार्ड पार्षद अजय ओझा, बालेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव, ध्रुवनन्दन प्रसाद, कुन्दन देवी, संतोष रंजन, मुकेश सिन्हा बुल्लू, विश्वंभर प्रसाद सिन्हा, उदय नारायण सिन्हा, राजेश श्रीवास्तव, मुसाफ़िर शर्मा, राजा तिवारी, सेवा समिति के धर्मेंद्र कुमार, दिलिप नेता, आचार्य प्रकाश, सोनू जी, पप्पू जी, मुकेश जी, आचार्य रविशंकर, सुनिल कुमार , सेवा समिति के सदस्यों समेत सैकड़ों भक्त मौजूद रहे।

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